हमने भोगों को नहीं भोगा अपितु भोगो ने हमको भोग लिया

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हमने भोगों को नहीं भोगा अपितु भोगो ने हमको भोग लिया

ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय

लखनऊ। कल्याणपुर के राष्ट्र भारती इण्टर काॅलेज में चल रही श्रीमद्भागवत कथा के दूसरे दिन ऋषिकेष से पधारे हुए कथा व्यास आचार्य नारायणदास जी ने बताया राजा परीक्षित् जी ने भगवान् शुकदेव जी से अपने आत्म कल्याण के दो प्रश्न किए, पहला जिसकी मृत्यु निकट हो, उसके लिए क्या श्रेयस्कर है? दूसरा आत्मकल्याण के लिए मनुष्य को क्या करना चाहिए?
श्रीमद्भागवत में इन दोनों प्रश्नों में जनसामान्य के जीवन के दार्शनिक तथ्य निहित है। प्रायः समाज में यह देखने-सुनने में आता है, सत्सङ्ग से विमुख व्यक्ति संसार के नश्वर पदार्थों को भोगने में यह भूल जाता है कि उसे भी एक दिन इस संसार से कूच करना है। महाराज भर्तृहरि जी ने मानव को सचेत करते हुए कहा है-
“भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः”
हमने भोगों को नहीं भोगा अपितु भोगो ने हमको भोग लिया। राजा परीक्षित् के प्रश्नों को सुनकर शुकदेव महाभाग ने उनको साधुवाद देते हुए कहा हे राजन्! आप के दोनों प्रश्न बहुत श्रेष्ठ हैं, क्योंकि इनमें लोककल्याण निहित है। हे राजन्! जब व्यक्ति का अन्त समय निकट आ जाये तो घबड़ाए नहीं अपितु भगवान् का ध्यान करे तथा घर-परिवार में जो आसक्ति उसे धीरे-धीरे छोड़ दे। जीवन में शान्ति प्राप्त हो और मृत्यु भी मङ्गलमय हो इसके लिए सर्वत्र भगवान् की ही भावना करे।
“वासुदेव सर्वम्” अथवा “सर्वखल्विदं ब्रह्म” अथवा “एको ब्रह्म द्वितोयो नास्ति” भगवान् श्रीकृष्ण महाभाग ने कुरुक्षेत्र के रणांगन में नरश्रेष्ठ अर्जुन को उपदेशित किया है- ‌इस नश्वर शरीर का परित्याग करते समय मनुष्य जिस भाव में रहता है, उसी भाव को प्राप्त होता है।
श्रीशुकदेव जी ने राजा परीक्षित् को सृष्टि की संरचना और विराटपुरुष के प्रादुर्भाव पर प्रकाश डालते हुए कहा- यह चराचर दृश्यमान जगत वस्तुतः प्रभु का ही स्वरूप है, इसलिए सर्वत्र और सभी में एक मात्र परामात्मा का दर्शन करना चाहिए।
श्रीमद्भागवत की कथाओं और दृष्टान्तों में जीवन के लौकिक-पारलौकिक सिद्धान्तो का विवेचन है। वस्तुतः जीविका है जीवन के लिए और जीवन है राष्ट्रस्वरूप परमात्मा की सेवा के लिए, जो व्यक्ति सदाचारी और कर्तव्यबोध पारायण होता है, उसके पास समस्त ऐश्वर्य स्वतः ही सेवा हेतु एकत्रित हो जाते हैं, जैसे सभी नदियाँ स्वयं समुद्र की ओर दौड़ी चली जाती हैं, जबकि समुद्र को उनकी कामना नहीं है। इसी प्रकार सत्पुरुषों के पास सभी सिद्धियाँऔर ऐश्वर्य स्वतः ही आते हैं।
आचार्य जी ने बताया श्रीमद्भागवत की कथाओं और दृष्टान्तों में भगवान् की सर्वव्यापकता और उनकी अपने भक्तों के प्रति कृपालुता का सुन्दर चित्रण प्राप्त होता है। व्यक्ति के व्यवहार से ही उसके आचार- विचार और स्वभाव का परिचय मिलता है।
शुकदेव जी कहते हैं यह समग्र संसार ही भगवान् का ही स्वरूप है। अतः जो सबके प्रति उत्तम व्यवहार करते हैं, वे तत्वदर्शी सत्पुरुष अपरोक्षरूप से मेरी ही सेवा-अर्चना करते हैं। केवल आध्यत्मिकज्ञान ही मनुष्यों को सुख-दुःख के द्वन्दों से विमुक्त करता है।
भगवान् कपिल और माता देवहूति के संवाद में सांख्य योग के सुन्दर और सारगर्भित तथ्य को उजागर करते हुए, आचार्य जी ने बताया चराचर सृष्टि ही भगवान् का सगुण स्वरूप है, इसलिए सबके प्रति प्रेम और सेवा का सुन्दर भाव धारणकर, जीवन जीना चाहिए।
आज कथा में मुख्य यजमान रमेश कुमार वर्मा सभार्या के अतिरिक्त, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव, श्रीमती रेखा।
आचार्य शिव वरण शास्त्री जी, पं० रोहित मिश्र, रामदत्तशुक्ल, एडवोकेट दया शंकर त्रिपाठी, शिवचरन यादव, डाॅ० कीर्ति पाण्डेय, अभिषेक द्विवेदी,ललित चन्द्र भट्ट, आचार्य सोमनाथ, राजू तिवारी, मानव श्रीवास्तव, सौरभ पाण्डेय, प्रशान्त सिंह आदि बड़ी मात्रा में श्रोतागण उपस्थित रहे।

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