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लखनऊ , ईजी . एस के श्रीवास्तव
गुरुदेव कहते है,”लोग कहते हैं कि बीवी बच्चों को छोड़कर जंगल या हिमालय को तुम्हे भागना पड़ेगा। इससे क्या फायदा हैं? ऐसा करना आसान नही है। यह प्रकृति के खिलाफ हैं और बुज़दिलों का ही काम है क्योंकि आप अपने फ़र्ज़ और जिम्मेदारी छोड़ कर भाग रहे हैं। जब आप जंगल में होंगे तब आपके विचार तो घर और कुटुंब के ही होंगे। ऐसे हालात में आप तपस्या कैसे कर सकेंगे? तो फिर सही तरीका कौन सा है? हम आपसे कहते हैं कि अपने घर को जंगल ले जाने से जंगल को घर ले आना अच्छा है। यह कैसे किया जाए? असल में यह बहुत ही आसान है। आप यह सोचिए कि अपने घर में आप केवल एक मेहमान हैं। आप देखेंगे की हर तकलीफ भाप बनकर (evaporate) गायब हो जाती है। बीवी और बच्चों को ईश्वर की दी हुई ट्रस्ट प्रॉपर्टी-अमानत समझो। वह तुम्हारे नहीं हैं। वह तुम्हारे बीवी और बच्चे नहीं है बल्कि तुम्हारे जिम्मे, तुम्हारी देखभाल में है। पजेशन (Possession-मिल्कियत) का हर ख्याल निकल जाना चाहिए। जब आप सोचेंगे कि यह मेरा है तब नुकसान का ख्याल भी आता है। जब कोई तुम्हारी जिम्मेदारी में है तब तुम बिना संकोच के उसका उस सही तरीके से पालन पोषण कर सकते हो जो उसके लिए जरूरी है। असल में पारिवारिक वातावरण में ही इंसान अपना फ़र्ज़ चुकाना सीखता है। लालाजी कहा करते थे गृहस्थ जीवन ही ट्रेनिंग (तालीम) के लिए सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है क्योंकि उसी में हम असली दान, असली मोहब्बत और असली वैराग्य सीख सकते हैं। अपने बारे में सोचने से पहले औरों के बारे में सोचना हम गृहस्थ जीवन में ही सीखते हैं। इसीलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है। और, मैं आपको बताता हूं कि यह बहुत आसान है सिर्फ मन को डायवर्ट (मोड़ना) करना है।”
संदर्भ:-
पुस्तक-मेरे गुरुदेव
अध्याय ४
कर्तव्य
लेखक-पार्थसारथी राजगोपालाचारी
❤️ *चारीजी के मुख से* ❤️
मंदिर अच्छे हैं – उन्हें अजायबघर बन जाने दो। हम मूर्ति पूजा की निंदा नहीं करते, केवल इतना कहते हैं कि वह प्रभावी नहीं हैं। हमने इसे सैकड़ों, हजारों साल आजमाया है। इसने हमें कहां पहुंचा दिया? दिन पर दिन बढ़ता भ्रष्टाचार, भारत की आज की इस दशा में, जहां धर्म, राजनीति और अपराध साथ -साथ चल रहे हैं। और अब भारत के लोगों के पास इसके सिवा अन्य कोई चारा नहीं है कि वे ईश्वर से उसकी कृपा का दान मांगने के लिए उन्हीं मंदिरों में लौटकर जाएं, और कहें, “हे प्रभु, दया करो”। और ईश्वर कहता है, “किस पर? कहां? तुम मेरे पास कब आए?” आप कहते हैं, “मंदिर तो मैं रोज सुबह आता हूं।” भगवान कहते हैं,”क्या मंदिर तक जाकर तुम मेरे सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, शाश्वत अस्तित्व पर शंका नहीं कर रहे हो? यदि तुम विश्वास करते हो कि मैं सवर्त्र हूं तो क्या तुम *मुझे* अपने ही घर में नहीं तलाशते? यहां आने की क्या जरूरत थी?” नहीं, नहीं, साहब, मैं चिट्ठी डालने डाकघर जाता हूं, निवृत होने शौचालय जाता हूं, खाने-पीने रेस्टोरेंट में जाता हूं। मेरे पिताजी ने कहा कि “यदि तुम्हें पूजा करनी है तो मंदिर जाओ।” भगवान कहता है, मानव निर्मित स्थानों, और दिव्य स्थानों के बीच भ्रम में मत पड़ो। भगवान का आवास तो सर्वत्र है। यदि *मैं* सर्वत्र हूं तो मैं तुम्हारे ह्रदय में भी हूं। अपने अंदर देखने की बजाय तुम मुझे बाहर क्यों ढूंढ रहे हो? इस संदेश को हम हर जगह सुनते हैं, हर दिन सुनते हैं, लगातार सुनते ही रहते हैं, लेकिन एक कान से सुनते हैं और दूसरे कान से निकाल देते हैं।
*दिल की आवाज़ 2004* भाग-I (पृ.25-26)
. *हार्टफुलनेस मेडिटेशन*
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