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मित्रता दो लोगों के मध्य एक पवित्र एवं अत्यन्त संवेदनशील समझौता है,जिसके निर्वहन का दायित्व समान रूप से दोनों का होता है।हर समझौते में कुछ न कुछ शर्तें होती हैं,जिनकी कसौटी पर पर ही समझौते का आंकलन होता है।मैं समझता हूँ,मित्रता के कुछ निकष अवश्य हैं -पारस्परिक संवेदनाओं का सम्मान,सहयोग ,हित सम्वर्द्धन आदि के अलवा भी अनेक बातें हो सकती हैं,जिनके अनुपालन की अपेक्षाएं होती हैं।ईश्वर से प्रार्थना है कि हमारे मध्य शक्ति बनी रहे,जिससे मित्रता के हर निकष पर हम खरे उतरें।
2-प्रायः लोग मित्रता और भक्ति में तादात्म्य या एकीकरण कर रहे हैं।वस्तुत: भक्त और भगवान में जो सम्बन्ध होता है वह शर्तविहीन नि:स्वार्थ होता है।भक्त का भगवान के प्रति प्रेम या भगवान का भक्त के प्रति कृपादृष्टि नि:स्वार्थ होती शर्त विहीन होती है।सच्चा भक्त भगवान से विशुद्ध हृदय से निश्छल हो कर बिना किसी शर्त या प्रत्याशा के प्रेम करता है ,और भगवान् भी भक्त की हर परिस्थिति आर्तनाद सुनते ही बिना किसी औपचारिकता के मदद के लिए दौड़ पडते हैं।पौराणिक आख्यानों में गजराज और द्रौपदी का उदाहरण प्रसिद्ध है।मीराबाई के सम्बन्ध में ऐसी ही बातें सुनने को मिलती हैं।
श्रीकृष्ण और सुदामा के मध्य भगवान् और भक्त का नहीं,अपितु मित्रता का ही सम्बन्ध था,जिसे दोनों ने बखूबी निभाया।जब हम मित्रता और भक्ति में अन्तर को नहीं समझेगें तो निश्चित ही मित्रता की कसौटी में नि:स्वार्थ या शर्तविहीनता को जोडेगें या देखने का प्रयास करेगें।अन्यथा तो मित्रता दो लोगों के मध्य एक पवित्र समझौता ही है,हाँ पवित्रता में निःस्वार्थता भी एक शर्त ही है, जिसे शुचितापूर्वक निभाने का उत्तर दायित्व दोनों का समान रूप से है।
हम मित्र बने रहें, इसी कामना के साथ-
शिवशंकर द्विवेदी ।