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एक है सत्ताधारी और दूसरा है सत्ता अभिलाषी
ब्यूरो चीफ आर एल पाण्डेय
लखनऊ।विनोबा विचार प्रवाह के सूत्रधार रमेश भैया ने कहा कि माना जाता है कि लोकशाही में एक सत्ताधारी पक्ष हो तो उसमें खतरा है ।उसके करेक्टिव के रूप में विरोधी पक्ष भी चाहिए।परंतु बाबा विनोबा का कहना था कि एक है सत्ताधारी और दूसरा है सत्ता अभिलाषी । हैं दोनो ही सत्ता के आसपास ही घूमनेवाले होने के कारण दोनों में ही कुछ दोष तो आएगा ही। इसलिए कहीं अधिक जरूरत है।पक्षतीत सेवक धर्म की।जो निस्पृह रहकर समाज में अपना अभिप्राय प्रकट करें। *विनोबा*। आज से तीस वर्ष पहले बैंकाक में विश्व महिला परिषद का आयोजन किया गया था जिसमें चिंतन का एक विषय यह भी था कि रिफाईनिंग डेमोक्रेसी एंड डेवलपमेंट *लोकतंत्र और विकास की व्याख्या* आज दुनिया के विश्व मंच पर लोकशाही और विकास के नाम पर सत्ता और संपत्ति के केंद्रीयकरण का जो नंगा नाच देखने को मिल रहा है ,उससे अब दुनिया त्रस्त हो चुकी है।दुनिया भर के इनेगिने लोग इस व्यवस्था में स्वर्गीय सुख सुविधाओं का आनंद लूट रहे हैं।और बाकी की तीन / चार से भी अधिक दुनिया इस 1/4 वर्ग की करतूतों का शिकार बन चुकी है।इस तथ्य का भान अब हो रहा है और दुनिया नयी अवधारणा की खोज में है।दुनिया का राजनैतिक और आर्थिक चेहरा अब बदल रहा है। इस परिवर्तन की परिस्थिति में हमारे पास नयी दिशा का रास्ता ,एक ब्लूप्रिंट ,एक नक्शा तैयार ही है, जो गांधी विनोबा शास्त्र के रूप में प्रस्तुत है। हम विभूतिपूजक भले ही न बनें परंतु विभूतियों द्वारा जो युगवाणी मुखरित हुई है,उसका लाभ तो ले ही सकते हैं। आज लोकशाही का जो ढांचा जगत के सामने साकार हुआ है उसके केंद्र में है सत्ता। यह जो सत्ता नाम की वस्तु है उसे समझ लेने की बहुत बड़ी आवश्यकता है।ऐसे सत्ता शब्द स्वयं ही उसका अर्थ सूचित करता है कि जो अस्तित्व में है,वह है सत्ता। सत्ता यानी सत ता है।भला यह सत्ता किसकी हो सकती है पृथ्वी पर। बाबा विनोबा ने बताया कि सत्ता उसी की हो सकती है,जो जीवन देता है।जीवन देने के बाद जीवन को परिपुष्ट करने के लिए जो जल अन्न फल आदि के रूप में पोषण देता है।पृथ्वी पर नित्य नया ताजा जीवन प्रवाह बहता रहे,इसलिए जर्जरित सर्जन का विसर्जन करने की शक्ति जिसके पास है।यही सत्ता है।यह सारा सर्जन ,भरण पोषण, विसर्जन केवल परम सत्ता से होता है।उसका स्थान कोई दूसरी शक्ति या ढांचा नहीं ले सकता।परंतु लोकशाही का जो वर्तमान ढांचा है वह सत्ता को अपना लक्ष्य बनाकर परम सत्ता को अपने हाथ में लेना चाहता है ।यह एक आसुरी वृत्ति है। सत्तांध लोगों से कभी किसी का हित नहीं हो सकता है। इसलिए विनोबा जी कहते थे कि राष्ट्र की धुरा हांथ में धारण करने वाले ऐसे धृतराष्ट्र हमेशा अंधे ही होते हैं।यह अंधत्व सत्तामोह का होता है। सत्ता की कुर्सी के इर्दगिर्द ही सारा खेल चलता है।फिर भले ही कहने के लिए लोकशाही दो पक्ष ही क्यों न हों? चाहे सत्ताकांछी हो, दोनों का लक्ष्य तो सत्ता ही होता है।*